बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन की मूवी पिंक का वह डायलॉग "महिला की 'न' का मतलब सिर्फ 'न' होता है" अब एक कानूनी सचाई के रूप में सामने आया है। यह डायलॉग जो फिल्म में महिला की इच्छाओं और अधिकारों को सम्मान देने की बात करता है, उसे बॉम्बे हाई कोर्ट के एक हालिया फैसले में उपयोग किया गया है। हाई कोर्ट ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में यह दोटूक शब्दों में स्पष्ट किया कि एक महिला का 'न' कहने का मतलब केवल और केवल 'न' होता है। इस फैसले में यह भी कहा गया कि बिना सहमति के किया गया कोई भी यौन संबंध अपराध माना जाएगा और इसमें किसी भी प्रकार की अस्पष्टता नहीं हो सकती।
बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने इस टिप्पणी को सामूहिक दुष्कर्म के मामले में तीन दोषियों की सजा बरकरार रखते हुए दी। न्यायमूर्ति नितिन सूर्यवंशी और न्यायमूर्ति एम डब्ल्यू चांदवानी की पीठ ने इस महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया कि एक महिला की पूर्व यौन गतिविधियां उसकी वर्तमान सहमति का आधार नहीं हो सकतीं। इस फैसले ने समाज और कानून को यह संदेश दिया है कि महिला की गरिमा और सहमति को पूरी तरह से मान्यता दी जानी चाहिए।
क्या था मामला?
यह मामला नवंबर 2014 का है, जब तीन दोषियों ने पीड़िता के घर में घुसकर उसके साथी पर हमला किया और फिर उसे एक सुनसान जगह पर ले जाकर सामूहिक बलात्कार किया। पीड़िता ने आरोप लगाया कि उसने इन अपराधियों के खिलाफ विरोध किया, लेकिन उन्हें किसी भी प्रकार की सहमति नहीं दी। अदालत ने मामले की गंभीरता को समझते हुए दोषियों के खिलाफ सख्त सजा का आदेश दिया।
वहीं, दोषियों ने अदालत में अपनी सजा को चुनौती दी और यह दावा किया कि पीड़िता ने पहले उन में से एक के साथ रिश्ते में थी और बाद में अन्य पुरुष के साथ लिव-इन में रहने लगी थी। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि पीड़िता के अतीत में संबंधों को देखते हुए उसकी सहमति को माना जाना चाहिए। लेकिन अदालत ने इस दलील को खारिज करते हुए कहा कि एक महिला के अतीत को उसकी वर्तमान सहमति के स्थान पर नहीं रखा जा सकता। इसका स्पष्ट मतलब था कि कोई भी महिला कभी भी अपनी सहमति वापस ले सकती है और उसका 'न' कहना वही अंतिम निर्णय माना जाएगा।
हाई कोर्ट का फैसला:
अदालत ने कहा कि जबरन यौन संबंध महिला की निजता, मानसिक स्थिति और शारीरिक स्वतंत्रता पर सीधा आक्रमण होता है। यह न सिर्फ एक यौन अपराध है, बल्कि यह आक्रामकता और उत्पीड़न का कृत्य भी है। न्यायमूर्ति सूर्यवंशी और चांदवानी की पीठ ने यह भी माना कि यदि कोई महिला किसी समय पहले किसी व्यक्ति के साथ यौन संबंधों में थी, तो भी उसे अपनी सहमति वापस लेने का पूरा अधिकार है और अगर उसने 'न' कह दिया तो यह 'न' ही रहेगा।
अदालत ने बलात्कार के अपराध की गंभीरता को रेखांकित करते हुए कहा कि यह अपराध समाज में नैतिक रूप से सबसे निंदनीय माना जाना चाहिए। हालांकि, न्यायालय ने दोषियों की सजा को कुछ कम करते हुए उनकी आजीवन कारावास की सजा को घटाकर 20 साल कर दिया। बावजूद इसके, कोर्ट ने अपने फैसले में यह संदेश दिया कि बलात्कार की गंभीरता को कमतर नहीं आंका जा सकता और समाज को इस प्रकार के अपराधों के प्रति जागरूक किया जाना चाहिए।
महिला की सहमति का अधिकार
इस फैसले का सबसे अहम पहलू यह है कि यह सिद्ध करता है कि महिला की सहमति को किसी भी परिस्थिति में बलात्कारी के विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि किसी महिला के अतीत के आधार पर उसकी वर्तमान सहमति का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। एक महिला का 'न' कहने का मतलब साफ है, 'न' और यही कानूनी दृष्टिकोण महिलाओं के अधिकारों और उनकी गरिमा की रक्षा करता है।
समाज को क्या सिखाता है यह फैसला?
यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह समाज को भी एक सशक्त संदेश देता है। समाज में महिलाओं के अधिकारों, उनकी गरिमा और उनकी सहमति के महत्व को स्वीकार करने की आवश्यकता है। यह संदेश महिलाओं को यह अधिकार देता है कि वे किसी भी समय अपनी सहमति वापस ले सकती हैं और किसी भी प्रकार के दबाव या उत्पीड़न से बच सकती हैं। इस फैसले ने यह भी साबित किया कि महिलाओं को एक समान अधिकार मिलना चाहिए और उनके निर्णयों का सम्मान किया जाना चाहिए।
इस फैसले के बाद यह उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में बलात्कार जैसे अपराधों में महिलाओं की सहमति का सम्मान किया जाएगा और इन अपराधों से जुड़ी सजा को और सख्त किया जाएगा। न्यायालय का यह कदम महिला अधिकारों की रक्षा के लिए एक बड़ा कदम साबित हो सकता है और समाज में जागरूकता फैला सकता है कि महिलाओं के 'न' का मतलब सिर्फ 'न' होता है।
निष्कर्ष
बॉम्बे हाई कोर्ट का यह फैसला महिलाओं के अधिकारों को मान्यता देने और उनके फैसलों का सम्मान करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी महिला की सहमति उसके स्वयं के अधिकार है और उस पर किसी का भी नियंत्रण नहीं होना चाहिए। यह फैसला समाज और कानून को महिला की गरिमा और अधिकारों के प्रति और अधिक संवेदनशील बनाने की दिशा में एक सकारात्मक पहल है।